धरती को आपकी जरूरत है, इसे बचाएँ

आज देश और दुनिया की पहली चिंता है- बिगड़ता पर्यावरण। हाल में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण समिति ने इस बात की आशंका जताई है कि अगर आज की गति से ही जंगल कटते रहे, बर्फ पिघलती रही तो शायद पचास सालों में दुनिया के कई निचले इलाके डूब जाएंगे। यही हालत रही तो सौ सालों में मालदीव, मॉरीशस सहित भारत के मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे शहर भी पानी में डूबकर विलुप्त हो सकते हैं। इस मामले में सरकारें अपने-अपने स्तर पर प्रयास कर रही हैं, लेकिन अब भी आम आदमी में जागरूकता नहीं आई है। लोग पर्यावरण बचाने में अपनी भूमिका को नहीं पहचानते। वे सोचते हैं- मैं कर ही क्या सकता हूं? पर अगर कोई वास्तव में कुछ करना चाहे तो किसी का मुंह देखने की जरूरत नहीं है।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

पर्यावरण के नाम पर

दिल्ली हाई कोर्ट ने पर्यावरण से संबंधित एक शीर्ष संस्था पर जो टिप्पणी की है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। उसने पर्यावरण के प्रति नौकरशाही के अगंभीर रवैये की ओर हमारा ध्यान खींचा है। कोर्ट ने नैशनल एनवायरनमेंट अपेलेट अथॉरिटी (एनईएए) के बारे में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान इस बात पर हैरानी प्रकट की है कि आखिर इसमें पर्यावरण विशेषज्ञों की बजाय केवल नौकरशाहों को क्यों रखा गया है। इसके सदस्यों ने अपने निजी कार्यक्रमों को ध्यान में रखकर अनेक दौरे किए और बैठकें कीं, लेकिन उन्होंने न तो उन बैठकों का कोई ब्यौरा दिया और न ही अपने दौरों के नतीजों के बारे में कोई खास जानकारी दी। अथॉरिटी की स्थापना 1997 में हुई थी, जिसका काम विभिन्न उद्योगों को एनवायरनमेंट क्लियरेंस देना है, लेकिन इसके कई निर्णयों को अदालत में चुनौती दी गई। संभवत: ऐसे ही तमाम मुद्दों पर विचार करने के बाद सरकार ने इसकी जगह ग्रीन ट्रिब्यूनल के गठन का निर्णय किया है। लेकिन इसकी भी क्या गारंटी है कि वह एनईएए से अलग होगी? सच तो यह है कि सरकार द्वारा गठित ज्यादातर ट्रिब्यूनलों, बोर्डों और कमिशनों का हाल कमोबेश इसी जैसा है। जैसे कि इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि सरकार की तमाम कवायदों के बावजूद अब तक पर्यावरण का संकट दूर होता क्यों नहीं नजर आ रहा है। दरअसल हमारे राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के लिए पर्यावरण का मुद्दा एक दुधारू गाय की तरह है, क्योंकि इसमें कोई जोखिम नहीं है। इससे वोट बैंक नहीं बनते-बिगड़ते। हां, बीच-बीच में कभी-कभी अदालत का डंडा बरसता है जैसे पिछले साल यमुना प्रदूषण के मामले में हाई कोर्ट ने दिल्ली जल बोर्ड के कुछ अधिकारियों को जेल और जुर्माने की सजा सुनाई थी। प्रदूषण दूर करने के मामले में सरकारें क्या कर रही हैं, उन्होंने कितने पैसे खर्च किए, उसका हिसाब मांगने वाला आमतौर पर कोई नहीं है। और अगर इसका हिसाब मांगा भी जाए तो यह मामला इतना तकनीकी है कि सरकारी बाबू तरह-तरह के बहाने बना कर आसानी से निकल जाते हैं। बहुत हुआ तो सारा दोष पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों पर मढ़ देते हैं। आज पर्यावरण पर बने तमाम सरकारी अपने मनचाहे नौकरशाहों को उपकृत करने का एक जरिया बने हुए हैं। लेकिन इनके कामकाज की एक बानगी देखिए, नदियों को नुकसान पहुंचाने वाली औद्योगिक इकाइयों की पहचान कई बार की गई, पर कभी उन पर शिकंजा नहीं कसा गया। क्या प्रदूषण जैसे संकट का सामना कागजी घोड़ों से किया जा सकता है? जब तक हमारे देश में भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता नहीं होगी तब तक इसके नाम पर सरकार के भीतर और उसके बाहर का एक तबका अपने हित साधता रहेगा।

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