धरती को आपकी जरूरत है, इसे बचाएँ

आज देश और दुनिया की पहली चिंता है- बिगड़ता पर्यावरण। हाल में संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण समिति ने इस बात की आशंका जताई है कि अगर आज की गति से ही जंगल कटते रहे, बर्फ पिघलती रही तो शायद पचास सालों में दुनिया के कई निचले इलाके डूब जाएंगे। यही हालत रही तो सौ सालों में मालदीव, मॉरीशस सहित भारत के मुंबई, चेन्नई और कोलकाता जैसे शहर भी पानी में डूबकर विलुप्त हो सकते हैं। इस मामले में सरकारें अपने-अपने स्तर पर प्रयास कर रही हैं, लेकिन अब भी आम आदमी में जागरूकता नहीं आई है। लोग पर्यावरण बचाने में अपनी भूमिका को नहीं पहचानते। वे सोचते हैं- मैं कर ही क्या सकता हूं? पर अगर कोई वास्तव में कुछ करना चाहे तो किसी का मुंह देखने की जरूरत नहीं है।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

सस्ती बिजली की महंगी मार1

टुडे नेचर वैश्वीकरण के इस दौर में चीन जैसे देशों से होड़ लेने के लिए जरूरी है कि हम सस्ते माल का उत्पादन करें। माल का सस्ता उत्पादन सस्ती बिजली की उपलब्धता पर निर्भर है। सीमेंट, स्टील, अल्युमीनियम और कागज के उत्पादन में बिजली की भारी खपत होती है। बिजली महंगी होने से इनका मूल्य बढ़ता है और इनसे बनने वाले उत्पाद भी महंगे हो जाते हैं। फलस्वरूप हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाते हैं। अपने देश में कमर्शल बिजली का दाम औसतन 6 रुपये प्रति यूनिट है। चीन में बिजली का दाम इससे लगभग आधा है। विश्व बाजार में चीन का सामना न कर पाने का एक महत्वपूर्ण कारण भारत में बिजली का महंगा होना है। इसलिए हमें बिजली का मूल्य कम करना होगा। पर चूंकि मूल्य कम होने के साथ बिजली की मांग बढ़ेगी, इसलिए इसके उत्पादन में भी वृद्धि करनी होगी। देश में बिजली के तीन प्रमुख सोत हैं- परमाणु, कोयला और जल विद्युत। इन तीनों ही की अपनी सीमा है। परमाणु बिजली के उत्पादन के लिए यूरेनियम के आयात पर निर्भर रहना पड़ता है जिससे हमारी आथिर्क संप्रभुता प्रभावित होती है। परमाणु कचरे से रेडियो धमीर् प्रदूषण का खतरा भी बना रहता है। कोयले से बिजली बनाने में धरती का तापमान बढ़ाने वाली जहरीली कार्बन डाई ऑक्साइड गैस निकलती है। जल विद्युत (हाइड्रो इलेक्ट्रिक) के उत्पादन में नदी के पानी में ऑक्सिजन की कमी होती है और बांधों में गाद जमा हो जाने से तटीय क्षेत्रों के डूबने का खतरा पैदा होता है।
पर ग्लोबल कॉंपिटिशन में टिकने के लिए लाजमी है कि कीमतें कम रखते हुए बिजली का उत्पादन बढ़ाया जाए। वैसे तो कीमतें कम रखने के मकसद से ही सरकार बिजली कंपनियों के जरिए होने वाली पर्यावरणीय क्षति की भरपाई का मूल्य वसूल नहीं करती है। अगर माना जाए कि किसी थर्मल प्लांट द्वारा एक यूनिट बिजली के उत्पादन में सीधा खर्च 5 रुपये आता है, तो उत्सजिर्त कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को वापस सोखने का खर्च 7 रुपये प्रति यूनिट बैठेगा। इस तरह प्रति यूनिट बिजली का वास्तविक मूल्य 12 रुपये होना चाहिए। पर चूंकि सरकार थर्मल प्लांट से कार्बन सोखने का खर्च नहीं लेती, इसलिए संयंत्र 5 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचकर लाभ कमाता है, यद्यपि इससे देश को 7 रुपये का पर्यावरण की क्षति का खर्च वहन करना पड़ता है। पर इसका एक पहलू यह है कि इससे बिजली सस्ती हो जाती है और हमें ग्लोबल कॉम्पिटिशन का सामना करने में मदद मिलती है। लेकिन बिजली सस्ती होने और इस कारण उसकी मांग में इजाफे का एक सीधा अर्थ कई पर्यावरणीय संकटों को न्योता देना है। याद रखना चाहिए कि सिंधु घाटी के हमारे पूर्वजों ने इस प्रकार के दीर्घकालीन प्रभावों को नजरअंदाज कर बड़े पैमाने पर जंगल काटे और चरागाहों का अति दोहन किया। जंगलों के कटने से भारी मात्रा में बालू सिंधु नदी में आई और नदी का जलस्तर इतना बढ़ गया कि भीषण बाढ़ें आ गईं। इससे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे शहर नष्ट हो गए। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि दीर्घकालीन प्रभावों के मद्देनजर बिजली उत्पादन को सीमित करना कितना जरूरी है। इसलिए हमें कोई ऐसी जुगत बिठानी होगी जिससे पर्यावरण भी बचा रहे और हम ग्लोबल कॉम्पिटिशन में भी बने रहें। यहां पर्यावरण को नए ढंग से पारिभाषित करना होगा। असल में पर्यावरण को होने वाली क्षति का असर सिर्फ क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसका ग्लोबल असर होता है। विकसित देशों में कारों के बेइंतहा इस्तेमाल और बिजली के अधिक उपयोग व उत्पादन से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है, जिससे पूरी दुनिया का तापमान बढ़ता है। पर्यावरण की इस क्षति को विकासशील देश भी सहन करने को मजबूर हैं। लेकिन इन दुष्प्रभावों का सामना करने के लिए हम अपने बाकी पर्यावरण को मजबूत कर सकते हैं। यदि हम अपनी नदियों और जंगलों को बचा लें तो दूसरे देशों द्वारा हम पर थोपी गई ग्लोबल वॉमिंर्ग का सामना करना तुलनात्मक रूप से आसान हो जाएगा। पर समस्या है कि पर्यावरण को बचाने के लिए उसे नुकसान पहुंचाने वाली इंडस्ट्री पर टैक्स लगाना होगा। परमाणु कचरे से रेडियो धमीर् विकरण के फैलाव से होने वाले नुकसान का बीमा कराने को परमाणु संयत्रों को बाध्य किया जा सकता है। थर्मल प्लांटों से कार्बन सोखने की नई तकनीकों को लागू करने को कहा जा सकता है। जल विद्युत कंपनियों से नदी के पानी के कुछ हिस्से को बिना छेड़छाड़ बहने देने को कहा जा सकता है। पर पर्यावरण को बचाने वाले इन उपायों पर अमल से घरेलू बिजली का मूल्य बढ़ जाएगा और हम ग्लोबल कॉंपिटिशन में पिछड़ जाएंगे। इस संकट का हल है कि घरेलू इंडस्ट्री पर पर्यावरण की क्षति के बराबर टैक्स लगाने के साथ-साथ विदेशी माल पर उतना ही आयात टैक्स बढ़ा दिया जाए। पर यह कैसे मुमकिन होगा। मान लीजिए कि बिजली महंगी होने से हमारे पावरलूम का कपड़ा 20 रुपये प्रति मीटर के स्थान पर 25 रुपये प्रति मीटर पड़ता है। जबकि दूसरे देशों में बिजली सस्ती होने से उसकी लागत 20 रुपये ही पड़ती है। ऐसे में उनका सस्ता कपड़ा हमारे बाजार में प्रवेश करेगा और हमारे उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे। इसलिए समस्या का समाधान है कि विदेशी कपड़े पर 5 रुपये का अतिरिक्त पर्यावरण आयात टैक्स लगा दिया जाए। इससे घरेलू इंडस्ट्री का कपड़ा विदेशी कपड़े को टक्कर देने की हैसियत में आ सकेगा। पर इसके साथ-साथ हमें अपने निर्यातों पर भी पर्यावरण सब्सिडी देनी होगी। अन्यथा भारत में जिस उत्पादित कपड़े का मूल्य 25 रुपये प्रति मीटर पड़ेगा, विश्व बाजार में उसकी कीमत 20 रुपये होगी। ऐसे स्थिति में तिरुपुर और सूरत के हमारे निर्यातक फेल हो जाएंगे। विदेशी बाजार में अपने कपड़े को प्रतिस्पर्धी कीमत पर बेचने के लिए जरूरी है कि निर्यात पर 5 रुपये की पर्यावरण सब्सिडी दी जाए। स्वीकार करना होगा कि इस व्यवस्था को लागू करके भी हम ग्लोबलाइजेशन का पूरा लाभ नहीं उठा पाएंगे। क्योंकि हमारे नागरिकों को वे चीजें भी विदेशों के मुकाबले महंगे दामों पर खरीदनी पड़ेंगी, जिन्हें खुद हम उत्पादित करते हैं। पर दीर्घकालिक हितों के नजरिए से ग्लोबलाइजेशन के इस लाभ का मोह छोड़ना ज्यादा फायदेमंद है। अल्पकालीन लाभ हासिल करने के लिए सस्ती बिजली बनाकर अपने पर्यावरण को दांव पर पर लगाना समझदारी नहीं है।

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