बुधवार, 24 फ़रवरी 2010
पॉलिथीन जीवों भूमि व जल के लिए घातक
पॉलिथीन मनुष्य समेत सभी जीवों, भूमि व जल के घातक है. इसे जलाने से निकलनेवाली डी-ऑक्सीन गैस से मनुष्य को कैेंसर भी हो सकता है. सस्ते पॉलिथीन का इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए और हानिकारक है. इसमें कई प्रकार के केमिकल्स मिले रहते हैं. पॉलि बैग के खाने से प्रतिदिन जानवरों की मौत हो रही है. प्रत्येक वर्ष विश्व में 500 बिलियन पॉलिथीन बैग का इस्तेमाल किया जाता है. प्रति मिनट करीब एक लाख पॉलि बैग का इस्तेमाल होता है, जो पर्यावरण के लिए काफी नुकसानदेह है. भारत में इसकी सबसे ज्यादा खपत है. आमतौर पर पॉलीइथलीन से बैग बनाया जाता है, जिसका घनत्व काफी कम होता है. इसकी रिसाइक्िलंग काफी महंगी है. इसके लिए फिलहाल कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. प्लास्टिक बैग नन-बायोडिग्रेडबल है, जो एक हजार वर्ष में नष्ट होता है.एक प्रतिशत प्लास्टिक बैग की रिसाइक्िलंग यूनाइटेड स्टेट की पर्यावरण संरक्षण एजेंसी की ओर से वर्ष 2000 में कराये गये सर्वेक्षण से पता चलता है कि विश्व में सिर्फ एक प्रतिशत पॉलि बैग की रिसाइक्िलंग होती है. वर्ष 2007 में 800 मिलियन एलबीएस बैग की रिसाइक्िलंग हुई. एक टन की रिसाइक्िलंग से 11 बैरल तेल के बराबर ऊर्जा बचायी जा सकती है. रिसाइक्िलंग के बाद पॉलिथीन का उपयोग सड़क निर्माण के लिए किया जा सकता है.
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
गर्त में जाती 'अर्थ'
विकासशील देशों की श्रेणी में निचली पायदान पर खड़ा नजर आया। एक बार फिर बीतते वक्त के साथ भारत पूंजी के पैमाने पर मजबूत हो उभर रहा है। इसके साथ ही पर्यावरण को लेकर इसकी चिंताओं को भी तवज्जो मिलनी शुरू हो गई है। दुनिया में चल रही पर्यावरण की राजनीति और हवा-पानी-आकाश से जुड़ी मानवीय चिंताओं का विश्लेषण : हवा में चारों तरफ ग्लोबल वॉर्मिंग, क्लाइमेट चेंज, क्योटो प्रोटोकॉल, कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस जैसे शब्द तैर रहे हैं। विकसित-विकासशील देशों के मतभेद गूंज रहे हैं, क्लीन-ग्रीन तकनीक की बातें हो रही हैं। इसके मूल में एक ही चिंता है, अपनी धरती बीमार हो रही है, उसका टेंपरेचर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। चूंकि इसका असर धरती पर रहने वालों, खासकर इंसानों पर हो रहा है इसलिए चारों तरफ हायतौबा कुछ ज्यादा है। मगर शोर ज्यादा हो रहा है और अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को लेकर गंभीर चिंतन कम। धरती की इस बीमारी की जड़ में है यूरोप में 1750 के बाद आई औद्योगिक क्रांति की आंधी। उस समय धरती के वातावरण के 10 लाखवें हिस्से में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 280 थी जो 1994 तक बढ़कर 358 तक हो गई थी। 1980 के दशक के आखिर में इसे लेकर चिंता बढ़ी। असल में कार्बन डाई ऑक्साइड ऐसी गैस है जो धरती के वातावरण में मौजूद रहकर सूरज से हम तक आने वाली गर्मी की कुछ मात्रा को सोखकर धरती को जीवनदायनी गर्मी देती है। वातावरण में मौजूद गैसों द्वारा गर्मी सोख कर धरती का ताप बढ़ाना ग्रीनहाउस इफेक्ट कहलाता है। कार्बन डाई ऑक्साइड प्रमुख ग्रीन हाउस गैस (जीएचजी) है बाकी दूसरी गैसें हैं मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन। लेकिन इनकी अधिकता से धरती का तापमान हद से ज्यादा बढ़ने लगा है यही ग्लोबल वॉर्मिंग है। 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरो में एक पृथ्वी सम्मेलन हुआ और धरती को बचाने की कवायद तेजी से शुरू हुई। इसमें मौसम में आने वाले बदलाव पर एक यूएन फ्रेमवर्क बनाया गया। इसके तहत औद्योगिक देशों को दुनिया के मौजूदा हालात के लिए जिम्मेदार बताते हुए जीएचजी के उत्सर्जन पर रोक लगाने की बात कही गई। विकासशील देशों से कहा गया कि वे विकास को प्राथमिकता दें पर धरती के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभाते रहें। इसमें अमीर देशों से उनकी सहायता करने को कहा गया। इसके बाद आई 1997 की क्योटो कॉन्फ्रेंस। जापान में आयोजित इस कॉन्फ्रेंस में एक प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों के लिए जीएचजी उत्सर्जन के लिए 1990 के आधार पर मानक तय किए गए। भारत और चीन जैसे विकासशील देशों पर यह पाबंदी बाध्यकारी नहीं है। इस प्रोटोकॉल को लागू करने का पहला चरण 2008 से 2012 रखा गया था। रूस इसे मान्यता देने वाला पहला देश था और फरवरी 2009 तक 183 देश इस पर अपनी सहमति जता चुके हैं। ये वे देश हैं जिनसे कुल जीएचजी का 55 फीसदी निकलता है। अमेरिका ने इसे अभी तक मान्यता नहीं दी है। ऑस्ट्रेलिया ने भी इसे हाल ही में मान्यता दी है। डेनमार्क के कोपेनहेगन में 7 दिसंबर से चालू होने वाली युनाइटेड नेशंस क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में अब तक के हालात की समीक्षा के साथ आगे की कार्रवाई पर विचार होगा। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि 9 अक्टूबर को बैंकॉक में संपन्न हुई क्लाइमेट चेंज टॉक में अमेरिका ने साफ तौर पर क्योटो प्रोटोकॉल को खारिज कर दिया और एक नए समझौते की मांग की। यूरोपियन यूनियन समेत तमाम औद्योगिक देशों ने अमेरिका की मांग की वकालत की है। उनका कहना है कि बिना अमेरिका को शामिल किए कोई भी समझौता सफल होना मुश्किल होगा। इसके साथ ही इन देशों का तर्क है कि प्रोटोकॉल के तहत विकासशील देशों के लिए भी लक्ष्य निर्धारित किए जाने चाहिए। अमीर-गरीब, उत्तर-दक्षिण, श्वेत-गैर श्वेत की खाई अमीर देशों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे न तो अपनी जीवनशैली बदल सकते हैं और न ही विकास का मॉडल। जैसे, अमेरिका में औसतन 100 ग्राम मांस को पैदा करने के लिए सात हजार लीटर पानी खर्च होता, हर साल अमीर देशों में ही करीब 55 अरब जानवर मीट के लिए काटे जाते हैं। इसी तरह द इकॉनमिस्ट मैगजीन के आंकड़े कहते हैं कि दुनिया की पांच कंपनियों (जिनमें नेस्ले, यूनीलीवर और कोका कोला शामिल हैं) की सालाना पानी की खपत 5।76 अरब लीटर है। यह पूरी दुनिया की साल भर की जरूरत को पूरा करने के लिए काफी है। हम जानते हैं कि ग्लोबल वॉर्मिंग का सीधा संबंध पानी की खपत और संसाधनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जुड़ा है। पर क्या अमेरिका अपने खानपान में बदलाव और इन कंपनियों को बंद करने की सोच सकता है। औद्योगिक देश अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए या तो क्योटो जैसे समझौतों को मानने से इनकार कर देते हैं या फिर पूरी समस्या के बारे दुनिया भर को गुमराह करते हैं। जैसे, अमेरिका में बुश प्रशासन ने ग्लोबल वॉर्मिंग पर डू-नथिंग की पॉलिसी अपना रखी थी, जून 2005 में अमेरिकी विदेश विभाग के दस्तावेजों से पता चलता है कि अमेरिकी सरकार ने तेल कंपनी एक्सन को क्लाइमेट चेंज पॉलिसी तय करने में 'अहम' भूमिका निभाने पर थैंक्स कहा। क्योटो मुद्दा भी इस पॉलिसी का हिस्सा था। इसी तरह अमेरिकी वैज्ञानिकों को ग्लोबल वॉर्मिंग पर गंभीर बहस करने से रोका जाता रहा। इसी का नतीजा है कि ताजा सवेर् से पता चलता है कि महज 35 फीसदी अमेरिकी ही ग्लोबल वॉर्मिंग को गंभीर समस्या मानते हैं। अमेरिका की इस नीति का एक और पहलू है गरीब, विकासशील देशों में डर फैलाना कि ग्लोबल वॉर्मिंग और क्लाइमेट चेंज से सबसे ज्यादा नुकसान उन्हीं का होने वाला है, जबकि है इसका उलट। यूरोप और अमेरिका में काफी पहले से ही इसके घातक परिणाम आने शुरू हो गए हैं। भारत का रवैया और जिम्मेदारियां भारत, चीन और ब्राजील जैसे देश विकासशील देशों की नुमाइंदगी करते हैं। भारत का स्टैंड है कि अमीर देश हमें क्लीन और ग्रीन तकनीक को वाजिब दामों पर मुहैया कराएं और जीएच गैसों का उत्सर्जन कम करने के एवज में हमें मुआवजा भी दिया जाए। लेकिन हाल ही में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के रुख में कुछ बदलाव दिखा। वह जी-77 छोड़ जी-20 समूह का साथ पकड़ने, अमेरिका के साथ नजदीकी बढ़ाने और भारत को भी उत्सर्जन पाबंदी जैसे दायरे में लाने के पक्षधर दिखे। बाद में विपक्ष के हायतौबा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वही पुराना स्टैंड दुहराया साथ ही औद्योगिक देशों से ग्रीन-क्लीन तकनीक और वित्तीय सहायता पाने पर जोर दिया। लेकिन भारत के रुख में यह बदलाव अचानक नहीं आया है। इसके कई आयाम हैं। असल में क्योटो संधि लाने वाले पश्चिमी देश समझ चुके हैं कि बिना भारत को साथ लिए आगे बढ़ना मुश्किल है। इसीलिए भारत को जी-8 देशों की बैठक में शामिल किया जाने लगा है। यह टकराव छोड़ नरमी का रास्ता है। दूसरा पहलू भारत की इमेज प्रॉब्लम का है, आज भारत की छवि एक अड़ंगेबाज, जिद्दी देश की है जो बिना झुके विकसित देशों से बहुत कुछ चाहता है। चीन की भी छवि बहुत कुछ ऐसी ही थी लेकिन हाल ही में हुई यूएन बैठक में उसने इसमें सुधार कर वाहवाही लूटी, जबकि उसने वही कुछ कहा जो भारत के अजेंडे में है। भारत को अहसास है कि बातचीत और नरमी से ही वह विकसित देशों से अपने लिए ग्रीन तकनीक और वित्तीय सहायता पा सकता है। समस्या कहां है? असल मुद्दे से भटक चुके हैं हम दरअसल हमारी इकनॉमिक ग्रोथ की थिअरी ही गलत है। इसके मुताबिक हम विकास को पूरी अर्थव्यवस्था में पैसे के लेन-देन से जोड़कर देखते हैं। अगर एक हराभरा पेड़ खड़ा है तो वह ग्रोथ के लिहाज से हमें कुछ नहीं देता, लेकिन अगर उसे काट दिया जाए तो उसे बेचकर जो पैसों का लेन-देन होगा वह ग्रोथ में शामिल हो जाएगा। इसी तरह हम विदेशों की देखादेखी औद्योगिक खेती अपना रहे हैं जिसके तहत जीएम फसलों को बढ़ावा मिल रहा है जो फायदा कम, नुकसान ज्यादा पहुंचा रही हैं। इनके उत्पादन में केमिकल फटिर्लाइजर्स का बहुतायत में इस्तेमाल होता है। इनमें शामिल नाइट्रोजन नाइट्रस ऑक्साइड में बदलती है जो आम ग्रीन हाउस गैसों से 300 गुना ज्यादा खतरनाक है। विश्व स्तर पर देखा जाए तो विश्व व्यापार को बढ़ावा तो दिया जा रहा है लेकिन उसमें ग्लोबल वॉर्मिंग के पक्ष को शामिल नहीं किया जा रहा है। यह व्यापार जिन साधनों से होगा मसलन हवाई यातायात वगैरह से, उनसे तो ग्लोबल वॉर्मिंग और भी बढ़नी है। पर हो यह रहा है कि हम असल मुद्दों से भटक कर समस्या को सुलझाने की जगह महज उसका नाटक कर रहे हैं। - डॉ। देवेंद्र शर्मा, कृषि विशेषज्ञ अमीर देश हैं असली अपराधी पूरी समस्या की जड़ में अमीर देश हैं जो अब अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। इसी तर्ज पर चलते हुए कोपेनहेगन कॉन्फ्रेंस से महज दो महीने पहले अमेरिका क्योटो संधि की जगह नई संधि की मांग करने लगा है। इसी तरह कार्बन ट्रेडिंग और ग्रीन टेक्नॉलजी के नाम पर ये देश भारत और विकासशील देशों को ठग रहे हैं। दरअसल यह पूरा मैकेनिज्म ही करप्ट है। वे महज गैस और सस्ते-सुधरे चूल्हों के नाम पर अपनी जिम्मेदारी पूरी करना चाहते हैं। इसी तरह जंगल काटकर उनकी जगह यूकेलिप्टस जैसे पेड़ लगाकर वाहवाही बटोरी जा रही है। लेकिन बाकी देश भी अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते। हम लोगों ने भी कुछ खास नहीं किया है। इस सब को देखकर लगता है कि रास्ता अभी लंबा है और मुश्किलें ज्यादा। - कुशल सिंह यादव, कोऑर्डिनेटर, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट क्या है कार्बन ट्रेडिंग क्योटो प्रोटोकॉल में प्रदूषण कम करने के दो तरीके सुझाए गए थे। इस कमी को कार्बन क्रेडिट की यूनिट में नापा जाना था। एक कार्बन यूनिट एक टन कार्बन के बराबर है। इन तरीकों में पहला था कि अमीर देश क्लीन डिवेलपमेंट मैकेनिजम में पैसे लगाएं या फिर, बाजार से कार्बन क्रेडिट खरीद लें। मतलब अगर विकसित देशों की कंपनियां खुद ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी न ला सकें तो विकासशील देशों से कार्बन क्रेडिट खरीद लें। चूंकि भारत और चीन जैसे देश में इन गैसों का उत्सर्जन कम होता है इसलिए यहां कार्बन क्रेडिट का बाजार काफी बड़ा है। कार्बन क्रेडिट पाने के लिए कंपनियां ऐसे प्रोजेक्ट लगाती हैं जिनसे हवा में मौजूद कार्बन डाइ ऑक्साइड में कमी आए या फिर क्लीन डिवेलपमेंट मिकेनिजम के इस्तेमाल से कम से कम कार्बन उत्सजिर्त हो। इसके तहत पेड़ लगाना, कचरे से एनर्जी बनाना, वेस्ट मैनेजमेंट, वॉटर मैनेजमेंट या रिन्यूएबल एनर्जी प्रोजेक्ट लगाना वगैरह शामिल हैं। क्योटो प्रोटोकॉल का ककहरा क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 40 औद्योगिक देशों को अलग सूची एनेक्स 1 में रखा गया। प्रोटोकॉल के पांच अहम सिद्धांत : 1. ग्रीन हाउस गैसों में कमी लाने की प्रतिबद्धता जो एनेक्स 1 में शामिल देशों के लिए बाध्यकारी है। 2. प्रोटोकॉल के लक्ष्यों को पूरा करने पर कार्बन क्रेडिट दिए जाने की व्यवस्था। 3. विकासशील देशों को कम नुकसान हो, इसके लिए एक फंड बनाया जाए। 4. प्रोटोकॉल की समग्रता बनाए रखने के लिए लगातार समीक्षा। 5. प्रोटोकॉल की प्रतिबद्धता लागू कराने के लिए एक अनुपालन समिति का गठन। कुछ अहम एनवायरनमेंटल एजेंसियां - इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी): 1988 में वर्ल्ड मिटियोरॉलॉजिकल ऑर्गनाइजेशन और युनाइटेड नेशंस एनवायरनमेंट प्रोग्राम द्वारा स्थापित यह संस्था इंसानी गतिविधियों द्वारा मौसम में होने वाले खतरनाक बदलावों का मूल्यांकन करती है। - यूरोपियन एनवायरनमेंट एजेंसी (ईईए) : यह यूरोपियन यूनियन की एजेंसी है जिसका काम यूरोप के वातावरण की लगातार निगरानी करना है। - यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी): युनाइटेड नेशंस की यह संस्था बेहतर एनवायरनमेंटल पॉलिसी लागू करने में विकासशील देशों की मदद करती है। एनवायरनमेंट से जुड़ी अहम समस्याएं ओजोन परत में छेद : धरती के वातावरण में मौजूद ओजोन की परत सूरज से आने वाली खतरनाक अल्ट्रा वॉयलट किरणों से बचाती है। लेकिन हवाई ईंधन और रेफ्रिजेशन इंडस्ट्री से निकलने वाले क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) से धरती के वातावरण में मौजूद ओजोन की सुरक्षा छतरी में छेद हो गए हैं। इससे स्किन कैंसर और आंखों की बीमारियां बढ़ी हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग : कार्बन डाई ऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, ओजोन चार प्रमुख ग्रीन हाउस गैसें हैं जिनके चलते धरती का तापमान बढ़ रहा है। समुद्र स्तर में बढ़ोतरी : ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिसके चलते समुद स्तर में तेजी से वृद्धि हो रही है। आशंका है कि मालदीव जैसे देशों का नामोनिशान तक मिट सकता है। ग्राउंड वॉटर का विषैलापन : बढ़ता समुद्री जल तटीय इलाकों में मौजूद ग्राउंड वॉटर को खारा और विषैला कर रहा है। जंगलों में कमी : बदलते मौसम और अंधाधुंध कटाई की वजह से धरती पर मौजूद जंगलों में काफी कमी आई है। आशंका है कि 2030 तक महज 10 फीसदी जंगल बचेंगे। धुवों की बर्फ का पिघलना : ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से पृथ्वी के धुवों की बर्फ पिघल रही है। इससे समुद्र के स्तर में बढ़ोतरी तो हो ही रही है धुवीय भालू जैसे जीवों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। लुप्त होते जीव : इन तमाम समस्याओं की वजह से धरती पर मौजूद पौधों की 56 हजार प्रजातियां और जीवों की 3700 नस्लें खत्म होने की कगार पर हैं।
सस्ती बिजली की महंगी मार1
टुडे नेचर वैश्वीकरण के इस दौर में चीन जैसे देशों से होड़ लेने के लिए जरूरी है कि हम सस्ते माल का उत्पादन करें। माल का सस्ता उत्पादन सस्ती बिजली की उपलब्धता पर निर्भर है। सीमेंट, स्टील, अल्युमीनियम और कागज के उत्पादन में बिजली की भारी खपत होती है। बिजली महंगी होने से इनका मूल्य बढ़ता है और इनसे बनने वाले उत्पाद भी महंगे हो जाते हैं। फलस्वरूप हम वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे रह जाते हैं। अपने देश में कमर्शल बिजली का दाम औसतन 6 रुपये प्रति यूनिट है। चीन में बिजली का दाम इससे लगभग आधा है। विश्व बाजार में चीन का सामना न कर पाने का एक महत्वपूर्ण कारण भारत में बिजली का महंगा होना है। इसलिए हमें बिजली का मूल्य कम करना होगा। पर चूंकि मूल्य कम होने के साथ बिजली की मांग बढ़ेगी, इसलिए इसके उत्पादन में भी वृद्धि करनी होगी। देश में बिजली के तीन प्रमुख सोत हैं- परमाणु, कोयला और जल विद्युत। इन तीनों ही की अपनी सीमा है। परमाणु बिजली के उत्पादन के लिए यूरेनियम के आयात पर निर्भर रहना पड़ता है जिससे हमारी आथिर्क संप्रभुता प्रभावित होती है। परमाणु कचरे से रेडियो धमीर् प्रदूषण का खतरा भी बना रहता है। कोयले से बिजली बनाने में धरती का तापमान बढ़ाने वाली जहरीली कार्बन डाई ऑक्साइड गैस निकलती है। जल विद्युत (हाइड्रो इलेक्ट्रिक) के उत्पादन में नदी के पानी में ऑक्सिजन की कमी होती है और बांधों में गाद जमा हो जाने से तटीय क्षेत्रों के डूबने का खतरा पैदा होता है।
पर ग्लोबल कॉंपिटिशन में टिकने के लिए लाजमी है कि कीमतें कम रखते हुए बिजली का उत्पादन बढ़ाया जाए। वैसे तो कीमतें कम रखने के मकसद से ही सरकार बिजली कंपनियों के जरिए होने वाली पर्यावरणीय क्षति की भरपाई का मूल्य वसूल नहीं करती है। अगर माना जाए कि किसी थर्मल प्लांट द्वारा एक यूनिट बिजली के उत्पादन में सीधा खर्च 5 रुपये आता है, तो उत्सजिर्त कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को वापस सोखने का खर्च 7 रुपये प्रति यूनिट बैठेगा। इस तरह प्रति यूनिट बिजली का वास्तविक मूल्य 12 रुपये होना चाहिए। पर चूंकि सरकार थर्मल प्लांट से कार्बन सोखने का खर्च नहीं लेती, इसलिए संयंत्र 5 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचकर लाभ कमाता है, यद्यपि इससे देश को 7 रुपये का पर्यावरण की क्षति का खर्च वहन करना पड़ता है। पर इसका एक पहलू यह है कि इससे बिजली सस्ती हो जाती है और हमें ग्लोबल कॉम्पिटिशन का सामना करने में मदद मिलती है। लेकिन बिजली सस्ती होने और इस कारण उसकी मांग में इजाफे का एक सीधा अर्थ कई पर्यावरणीय संकटों को न्योता देना है। याद रखना चाहिए कि सिंधु घाटी के हमारे पूर्वजों ने इस प्रकार के दीर्घकालीन प्रभावों को नजरअंदाज कर बड़े पैमाने पर जंगल काटे और चरागाहों का अति दोहन किया। जंगलों के कटने से भारी मात्रा में बालू सिंधु नदी में आई और नदी का जलस्तर इतना बढ़ गया कि भीषण बाढ़ें आ गईं। इससे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे शहर नष्ट हो गए। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि दीर्घकालीन प्रभावों के मद्देनजर बिजली उत्पादन को सीमित करना कितना जरूरी है। इसलिए हमें कोई ऐसी जुगत बिठानी होगी जिससे पर्यावरण भी बचा रहे और हम ग्लोबल कॉम्पिटिशन में भी बने रहें। यहां पर्यावरण को नए ढंग से पारिभाषित करना होगा। असल में पर्यावरण को होने वाली क्षति का असर सिर्फ क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसका ग्लोबल असर होता है। विकसित देशों में कारों के बेइंतहा इस्तेमाल और बिजली के अधिक उपयोग व उत्पादन से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है, जिससे पूरी दुनिया का तापमान बढ़ता है। पर्यावरण की इस क्षति को विकासशील देश भी सहन करने को मजबूर हैं। लेकिन इन दुष्प्रभावों का सामना करने के लिए हम अपने बाकी पर्यावरण को मजबूत कर सकते हैं। यदि हम अपनी नदियों और जंगलों को बचा लें तो दूसरे देशों द्वारा हम पर थोपी गई ग्लोबल वॉमिंर्ग का सामना करना तुलनात्मक रूप से आसान हो जाएगा। पर समस्या है कि पर्यावरण को बचाने के लिए उसे नुकसान पहुंचाने वाली इंडस्ट्री पर टैक्स लगाना होगा। परमाणु कचरे से रेडियो धमीर् विकरण के फैलाव से होने वाले नुकसान का बीमा कराने को परमाणु संयत्रों को बाध्य किया जा सकता है। थर्मल प्लांटों से कार्बन सोखने की नई तकनीकों को लागू करने को कहा जा सकता है। जल विद्युत कंपनियों से नदी के पानी के कुछ हिस्से को बिना छेड़छाड़ बहने देने को कहा जा सकता है। पर पर्यावरण को बचाने वाले इन उपायों पर अमल से घरेलू बिजली का मूल्य बढ़ जाएगा और हम ग्लोबल कॉंपिटिशन में पिछड़ जाएंगे। इस संकट का हल है कि घरेलू इंडस्ट्री पर पर्यावरण की क्षति के बराबर टैक्स लगाने के साथ-साथ विदेशी माल पर उतना ही आयात टैक्स बढ़ा दिया जाए। पर यह कैसे मुमकिन होगा। मान लीजिए कि बिजली महंगी होने से हमारे पावरलूम का कपड़ा 20 रुपये प्रति मीटर के स्थान पर 25 रुपये प्रति मीटर पड़ता है। जबकि दूसरे देशों में बिजली सस्ती होने से उसकी लागत 20 रुपये ही पड़ती है। ऐसे में उनका सस्ता कपड़ा हमारे बाजार में प्रवेश करेगा और हमारे उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे। इसलिए समस्या का समाधान है कि विदेशी कपड़े पर 5 रुपये का अतिरिक्त पर्यावरण आयात टैक्स लगा दिया जाए। इससे घरेलू इंडस्ट्री का कपड़ा विदेशी कपड़े को टक्कर देने की हैसियत में आ सकेगा। पर इसके साथ-साथ हमें अपने निर्यातों पर भी पर्यावरण सब्सिडी देनी होगी। अन्यथा भारत में जिस उत्पादित कपड़े का मूल्य 25 रुपये प्रति मीटर पड़ेगा, विश्व बाजार में उसकी कीमत 20 रुपये होगी। ऐसे स्थिति में तिरुपुर और सूरत के हमारे निर्यातक फेल हो जाएंगे। विदेशी बाजार में अपने कपड़े को प्रतिस्पर्धी कीमत पर बेचने के लिए जरूरी है कि निर्यात पर 5 रुपये की पर्यावरण सब्सिडी दी जाए। स्वीकार करना होगा कि इस व्यवस्था को लागू करके भी हम ग्लोबलाइजेशन का पूरा लाभ नहीं उठा पाएंगे। क्योंकि हमारे नागरिकों को वे चीजें भी विदेशों के मुकाबले महंगे दामों पर खरीदनी पड़ेंगी, जिन्हें खुद हम उत्पादित करते हैं। पर दीर्घकालिक हितों के नजरिए से ग्लोबलाइजेशन के इस लाभ का मोह छोड़ना ज्यादा फायदेमंद है। अल्पकालीन लाभ हासिल करने के लिए सस्ती बिजली बनाकर अपने पर्यावरण को दांव पर पर लगाना समझदारी नहीं है।
पर ग्लोबल कॉंपिटिशन में टिकने के लिए लाजमी है कि कीमतें कम रखते हुए बिजली का उत्पादन बढ़ाया जाए। वैसे तो कीमतें कम रखने के मकसद से ही सरकार बिजली कंपनियों के जरिए होने वाली पर्यावरणीय क्षति की भरपाई का मूल्य वसूल नहीं करती है। अगर माना जाए कि किसी थर्मल प्लांट द्वारा एक यूनिट बिजली के उत्पादन में सीधा खर्च 5 रुपये आता है, तो उत्सजिर्त कार्बन डाई ऑक्साइड गैस को वापस सोखने का खर्च 7 रुपये प्रति यूनिट बैठेगा। इस तरह प्रति यूनिट बिजली का वास्तविक मूल्य 12 रुपये होना चाहिए। पर चूंकि सरकार थर्मल प्लांट से कार्बन सोखने का खर्च नहीं लेती, इसलिए संयंत्र 5 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली बेचकर लाभ कमाता है, यद्यपि इससे देश को 7 रुपये का पर्यावरण की क्षति का खर्च वहन करना पड़ता है। पर इसका एक पहलू यह है कि इससे बिजली सस्ती हो जाती है और हमें ग्लोबल कॉम्पिटिशन का सामना करने में मदद मिलती है। लेकिन बिजली सस्ती होने और इस कारण उसकी मांग में इजाफे का एक सीधा अर्थ कई पर्यावरणीय संकटों को न्योता देना है। याद रखना चाहिए कि सिंधु घाटी के हमारे पूर्वजों ने इस प्रकार के दीर्घकालीन प्रभावों को नजरअंदाज कर बड़े पैमाने पर जंगल काटे और चरागाहों का अति दोहन किया। जंगलों के कटने से भारी मात्रा में बालू सिंधु नदी में आई और नदी का जलस्तर इतना बढ़ गया कि भीषण बाढ़ें आ गईं। इससे मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे शहर नष्ट हो गए। इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि दीर्घकालीन प्रभावों के मद्देनजर बिजली उत्पादन को सीमित करना कितना जरूरी है। इसलिए हमें कोई ऐसी जुगत बिठानी होगी जिससे पर्यावरण भी बचा रहे और हम ग्लोबल कॉम्पिटिशन में भी बने रहें। यहां पर्यावरण को नए ढंग से पारिभाषित करना होगा। असल में पर्यावरण को होने वाली क्षति का असर सिर्फ क्षेत्र विशेष तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसका ग्लोबल असर होता है। विकसित देशों में कारों के बेइंतहा इस्तेमाल और बिजली के अधिक उपयोग व उत्पादन से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन बढ़ता है, जिससे पूरी दुनिया का तापमान बढ़ता है। पर्यावरण की इस क्षति को विकासशील देश भी सहन करने को मजबूर हैं। लेकिन इन दुष्प्रभावों का सामना करने के लिए हम अपने बाकी पर्यावरण को मजबूत कर सकते हैं। यदि हम अपनी नदियों और जंगलों को बचा लें तो दूसरे देशों द्वारा हम पर थोपी गई ग्लोबल वॉमिंर्ग का सामना करना तुलनात्मक रूप से आसान हो जाएगा। पर समस्या है कि पर्यावरण को बचाने के लिए उसे नुकसान पहुंचाने वाली इंडस्ट्री पर टैक्स लगाना होगा। परमाणु कचरे से रेडियो धमीर् विकरण के फैलाव से होने वाले नुकसान का बीमा कराने को परमाणु संयत्रों को बाध्य किया जा सकता है। थर्मल प्लांटों से कार्बन सोखने की नई तकनीकों को लागू करने को कहा जा सकता है। जल विद्युत कंपनियों से नदी के पानी के कुछ हिस्से को बिना छेड़छाड़ बहने देने को कहा जा सकता है। पर पर्यावरण को बचाने वाले इन उपायों पर अमल से घरेलू बिजली का मूल्य बढ़ जाएगा और हम ग्लोबल कॉंपिटिशन में पिछड़ जाएंगे। इस संकट का हल है कि घरेलू इंडस्ट्री पर पर्यावरण की क्षति के बराबर टैक्स लगाने के साथ-साथ विदेशी माल पर उतना ही आयात टैक्स बढ़ा दिया जाए। पर यह कैसे मुमकिन होगा। मान लीजिए कि बिजली महंगी होने से हमारे पावरलूम का कपड़ा 20 रुपये प्रति मीटर के स्थान पर 25 रुपये प्रति मीटर पड़ता है। जबकि दूसरे देशों में बिजली सस्ती होने से उसकी लागत 20 रुपये ही पड़ती है। ऐसे में उनका सस्ता कपड़ा हमारे बाजार में प्रवेश करेगा और हमारे उद्योग ध्वस्त हो जाएंगे। इसलिए समस्या का समाधान है कि विदेशी कपड़े पर 5 रुपये का अतिरिक्त पर्यावरण आयात टैक्स लगा दिया जाए। इससे घरेलू इंडस्ट्री का कपड़ा विदेशी कपड़े को टक्कर देने की हैसियत में आ सकेगा। पर इसके साथ-साथ हमें अपने निर्यातों पर भी पर्यावरण सब्सिडी देनी होगी। अन्यथा भारत में जिस उत्पादित कपड़े का मूल्य 25 रुपये प्रति मीटर पड़ेगा, विश्व बाजार में उसकी कीमत 20 रुपये होगी। ऐसे स्थिति में तिरुपुर और सूरत के हमारे निर्यातक फेल हो जाएंगे। विदेशी बाजार में अपने कपड़े को प्रतिस्पर्धी कीमत पर बेचने के लिए जरूरी है कि निर्यात पर 5 रुपये की पर्यावरण सब्सिडी दी जाए। स्वीकार करना होगा कि इस व्यवस्था को लागू करके भी हम ग्लोबलाइजेशन का पूरा लाभ नहीं उठा पाएंगे। क्योंकि हमारे नागरिकों को वे चीजें भी विदेशों के मुकाबले महंगे दामों पर खरीदनी पड़ेंगी, जिन्हें खुद हम उत्पादित करते हैं। पर दीर्घकालिक हितों के नजरिए से ग्लोबलाइजेशन के इस लाभ का मोह छोड़ना ज्यादा फायदेमंद है। अल्पकालीन लाभ हासिल करने के लिए सस्ती बिजली बनाकर अपने पर्यावरण को दांव पर पर लगाना समझदारी नहीं है।
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
तो ही बच पाएंगे ग्लोबल वॉर्मिंग से
टुडे नेचर ग्लोबल वॉर्मिंग से दिन- प्रतिदिन हमारे माहौल में बदलवा आ रहा है। दरअसल, वातावरण में खतरनाक स्तर तक ग्रीन हाउस गैसें इकट्ठी होने से हालात इस कदर बदतर हुए हैं। आज पर्यावरणविदों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि अगर इसी स्पीड से ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ती रही,तो धरती के वायुमंडल पर उसका कैसा असर पड़ेगा। रिसर्च के अनुसार, अगर टेम्प्रेचर दो डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, तो इसे तापमान में धीमी बढ़ोतरी माना जाता है, लेकिन अगर तापमान पांच डिग्री सेल्सियस या इससे ज्यादा बढ़ता है, इसके हानिकारक प्रभाव पड़ सकते हैं। तापमान में धीमी बढ़ोतरी से पीने के पानी का संकट पनप सकता है। तटीय प्रदेशों पर इसका उलटा असर पड़ सकता है। पर्वतीय प्रदेशों की जलवायु पर घातक असर हो सकते हैं। इससे वहां के पेड़- पौधे और हरियाली तहस- नहस हो सकती है। वैसे, इस हालात में सुधार लाने के लिए सरकार की ओर से लगातार कोशिशें जारी हैं, लेकिन इसके साथ ही उद्योगों को भी ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने की दिशा में ठोस कदम उठाने पड़ेंगे। अगर समय रहते इसे न रोका जाए, तो भविष्य में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इसलिए भविष्य में कॉर्परट जगत के लिए योजना बनाते समय कुछ क्षेत्रों पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत होगी। ऊर्जा क्षमता : सीएफएल/ एलईडी लाइटिंग, बिल्डिंग डिजाइन और अप्लाइंस स्टैंडर्ड। लोअर कोस्ट, ग्रेटर यूजबिलिटी : सौर ऊर्जा और वायु जैसे नए संसाधनों के इस्तेमाल को बिजनस प्लान में जगह दी जा सकती है। पावर फॉर्म वेस्ट: बायो केमिकल्स कन्वर्जन, वेस्ट वॉटर यूज, सीवेज यूटिलाइजेशन और रिसाइकलिंग। नए बिजनस मॉडल तैयार करना। अब 2050 तक विश्व में कार्बन की प्रॉडक्टविटी करीब 7500 डॉलर प्रति टन तक बढ़ानी होगी। इस दौरान एनर्जी सेक्टर को भी बदलाव के कई दौर से गुजरना होगा।
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
आप खुद बचा सकते हैं पर्यावरण
आज हम गंभीर होकर हवा, पानी, जमीन जैसी जीवन की बुनियादी जरूरतों की रक्षा के लिए अपने योगदान पर विचार कर सकते हैं।
पानी - यह बहुत कीमती है, घर में रोजमर्रा की हर गतिविधि में पानी की बचत करें। नहाने के लिए शावर की जगह बाल्टी का इस्तेमाल करें। घर में इस्तेमाल पानी को नाली में बर्बाद न करें। उसका प्रयोग गमलों में या आंगन में पेड़-पौधों को सींचने के लिए करें।
पेड़ - कागज पेड़ से बनता है। कागज बचाएं, पेड़ बचाएं। पेड़ जीवनरक्षक हैं, ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाएं। जागरूक नागरिक बनें। आसपास पेड़ काटे जाने जैसी घटनाओं का विरोध करें।
कचरा - नियत स्थानों पर ही कचरा डालें। उसे इधर-उधर न फैलाएं। पॉलिथीन की जगह जूट या कागज के थैलों का इस्तेमाल करें।
पैकेज्ड फूड की जगह फ्रेश फूड खरीदें। समारोहों के लिए प्लास्टिक के ग्लास और प्लेटों का इस्तेमाल न करें।
वाहन - प्राइवेट वाहनों के बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ज्यादा इस्तेमाल करें। डीजल ज्यादा प्रदूषण फैलाता है, इससे चलने वाले वाहनों का कम उपयोग करें। छोटी दूरियों के लिए हो सके तो पैदल जाएं या साइकल/रिक्शे का उपयोग करें। निजी वाहनों की सर्विसिंग, प्रदूषण जांच कराते रहें। रेड लाइट पर इंजन बंद कर दें। ऑफिस के लिए कार पूल करें।
बिजली - दिन में प्राकृतिक रोशनी से काम चलाएं। जरूरत न होने पर लाइट बंद कर दें। एसी/गीजर का सीमित उपयोग करें। ऊर्जा की कम खपत वाले उपकरणों का प्रयोग करें। पानी गर्म करने के लिए सोलर सिस्टम लगाएं। आस-पड़ोस में भी जागरूकता फैलाएं।
पानी - यह बहुत कीमती है, घर में रोजमर्रा की हर गतिविधि में पानी की बचत करें। नहाने के लिए शावर की जगह बाल्टी का इस्तेमाल करें। घर में इस्तेमाल पानी को नाली में बर्बाद न करें। उसका प्रयोग गमलों में या आंगन में पेड़-पौधों को सींचने के लिए करें।
पेड़ - कागज पेड़ से बनता है। कागज बचाएं, पेड़ बचाएं। पेड़ जीवनरक्षक हैं, ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाएं। जागरूक नागरिक बनें। आसपास पेड़ काटे जाने जैसी घटनाओं का विरोध करें।
कचरा - नियत स्थानों पर ही कचरा डालें। उसे इधर-उधर न फैलाएं। पॉलिथीन की जगह जूट या कागज के थैलों का इस्तेमाल करें।
पैकेज्ड फूड की जगह फ्रेश फूड खरीदें। समारोहों के लिए प्लास्टिक के ग्लास और प्लेटों का इस्तेमाल न करें।
वाहन - प्राइवेट वाहनों के बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ज्यादा इस्तेमाल करें। डीजल ज्यादा प्रदूषण फैलाता है, इससे चलने वाले वाहनों का कम उपयोग करें। छोटी दूरियों के लिए हो सके तो पैदल जाएं या साइकल/रिक्शे का उपयोग करें। निजी वाहनों की सर्विसिंग, प्रदूषण जांच कराते रहें। रेड लाइट पर इंजन बंद कर दें। ऑफिस के लिए कार पूल करें।
बिजली - दिन में प्राकृतिक रोशनी से काम चलाएं। जरूरत न होने पर लाइट बंद कर दें। एसी/गीजर का सीमित उपयोग करें। ऊर्जा की कम खपत वाले उपकरणों का प्रयोग करें। पानी गर्म करने के लिए सोलर सिस्टम लगाएं। आस-पड़ोस में भी जागरूकता फैलाएं।
सांबर का अस्तित्व खतरे में
टुडे नेचर, जम्मू आबादी बढ़ने से मनुष्य के लिए तो संकट पैदा हुआ ही, पशु-पक्षी के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा है। जंगलों में मानव के बढ़ते हस्तक्षेप से वन्य जीवों का स्वच्छंद विचरण करना मुश्किल हो गया है। बार्डर इलाके के नम जंगलों में पाए जाने वाले हिरण प्रजाति के सबसे बड़े जानवर सांबर की भी यही स्थिति है। जंगलों से भटक कर हर वर्ष दो-तीन दर्जन सांबर मैदानी इलाकों में पहुंच कर घायल हो जाते हैं। भागमभाग में कई बार इनको अपनी जान भी गंवानी पड़ती है। करीब दस-बारह साल पहले जम्मू के मैदानी क्षेत्रों में यह जानवर नहीं दिखाई देते थे। हैरत की बात है कि इन जानवरों के सिकुड़ते आश्रय स्थल को सुरक्षित बनाने के लिए सरकार के पास कोई योजना नहीं है। खास बात यह है कि जम्मू-कश्मीर में ये सांबर सिर्फ कठुआ से अखनूर तक बार्डर बेल्ट के जंगलों में पाए जाते हैं। सीमा पर 200 किलोमीटर की तारबंदी के बाद इनकी उलझनें और बढ़ गई हैं। एक तरफ सीमा पार के जंगलों में इनका विचरण कम हो गया है, वहीं दूसरी ओर 600 हेक्टेयर में सिकुड़ गए आश्रय क्षेत्र में ग्रामीणों और सुरक्षाबलों की चहलकदमी बढ़ने से ये जानवर अब मैदानी क्षेत्रों की ओर रुख करने लगे हैं। इस वर्ष जनवरी माह से अब तक तीन सांबर मैदानी इलाकों में घायल अवस्था में पकड़े जा चुके हैं। एक सांबर को तो भाग-दौड़ में अपनी जान भी गंवानी पड़ी। आरएसपुरा क्षेत्र के अशोक कुमार का कहना है कि कुछ सालों से मैदानों में सांबरों के दिखने का मामला काफी बढ़ा है। उल्लेखनीय है कि वर्तमान में मांडा के डीयर पार्क में छह सांबर पल रहे हैं और ये सभी नर हैं। इनको सांबर बार्डर क्षेत्र के मैदानी इलाकों से बचा कर यहां लाया गया है और बेहतर वातावरण उपलब्ध करवाया जा रहा है। भूरे रंग का यह सांबर हिरण प्रजाति का सबसे बड़ा जानवर है। इसकी ऊंचाई करीब 160 सेमी और वजन 300 किलोग्राम होता है। फुर्तीले मगर डरपोक स्वभाव के इन जानवरों के टेढ़े-मेढ़े सींग ही इनकी खूबसूरती हैं। विश्व भर में इनकी अच्छी खासी संख्या है, लेकिन जम्मू-कश्मीर में इनकी संख्या के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। वन्यजीव संरक्षण विभाग के रेंज अधिकारी माजिद का कहना है कि सांबरों की गणना नहीं हुई है। ये दुर्लभ प्रजाति में नहीं आते हैं। वहीं वन्यजीव के विशेषज्ञ ओपी विद्यार्थी का कहना है कि जंगलों में घटती खुराक से ये जानवर प्रभावित हुए हैं।
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
यह पर्यावरण क्या है?
'नैचरल एनवायरनमंट', जिसे हम आम बोलचाल की भाषा में एनवायरनमंट या पर्यावरण कहते हैं, आज गंभीर चिंतन का व िषय बन चुका है। यह पर्यावरण असल में है क्या? हमारी धरती और इसके आसपास के कुछ हिस्सों को पर्यावरण में शामिल किया जाता है। इसमें सिर्फ मानव ही नहीं, बल्कि जीव-जंतु और पेड़-पौधे भी शामिल किए गए हैं। यहां तक कि निर्जीव वस्तुओं को भी पर्यावरण का हिस्सा माना गया है। कह सकते हैं, धरती पर आप जिस किसी चीज को देखते और महसूस करते हैं, वह पर्यावरण का हिस्सा है। इसमें मानव, जीव-जंतु, पहाड़, चट्टान जैसी चीजों के अलावा हवा, पानी, ऊर्जा आदि को भी शामिल किया जाता है। धरती से जुड़े विज्ञान 'जीओ-साइंस' में धरती जुड़े चार स्तर बताए गए हैं, लीथोस्फेयर, हाइड्रोस्फेयर, एटमॉस्फेयर और बायोस्फेयर। ये क्रमश: चट्टान, पानी, हवा और जीवन का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुछ वैज्ञानिक ने हाइड्रोस्फेयर में से क्रायोस्फेयर (बर्फ) को भी अलग किया है, जबकि कुछ छठा स्तर इडोस्फेयर (मिट्टी) भी मानते हैं। धरती से जुड़े रहस्यों को समझने के लिए अर्थ साइंस की कुछ शाखाएं जैसे - जिऑग्रफी, जिओलॉजी, जिओफिजिक्स और जिओडेसी विकसित की गई हैं। इनमें फिजिक्स, केमिस्ट्री, बॉयोलॉजी और मैथमेटिक्स की सहायता ली जाती है। धरती के रहस्यों को जानने की कोशिशें तो बरसों से होती रही हैं, आज जरूरत है कि इसके साथ-साथ धरती और इसके पर्यावरण को बचाने की कोशिशें भी तेज की जाएं। विश्व पर्यावरण दिवस इन्हीं कोशिशों का एक अहम हिस्सा है। देश, धर्म और जाति की दीवारों से परे यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर पूरी दुनिया के लोगों को एक होना होगा। पर्यावरण संरक्षण सिर्फ भाषणों, फिल्मों, किताबों और लेखों से ही नहीं हो सकता, बल्कि हर इंसान को धरती के अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, तभी कुछ ठोस नजर आ सकेगा। सोचिए! आखिर इस धरती पर रहना, तो हम सभी को है।
पर्यावरण के नाम पर
दिल्ली हाई कोर्ट ने पर्यावरण से संबंधित एक शीर्ष संस्था पर जो टिप्पणी की है, उसे गंभीरता से लेने की जरूरत है। उसने पर्यावरण के प्रति नौकरशाही के अगंभीर रवैये की ओर हमारा ध्यान खींचा है। कोर्ट ने नैशनल एनवायरनमेंट अपेलेट अथॉरिटी (एनईएए) के बारे में एक याचिका पर सुनवाई के दौरान इस बात पर हैरानी प्रकट की है कि आखिर इसमें पर्यावरण विशेषज्ञों की बजाय केवल नौकरशाहों को क्यों रखा गया है। इसके सदस्यों ने अपने निजी कार्यक्रमों को ध्यान में रखकर अनेक दौरे किए और बैठकें कीं, लेकिन उन्होंने न तो उन बैठकों का कोई ब्यौरा दिया और न ही अपने दौरों के नतीजों के बारे में कोई खास जानकारी दी। अथॉरिटी की स्थापना 1997 में हुई थी, जिसका काम विभिन्न उद्योगों को एनवायरनमेंट क्लियरेंस देना है, लेकिन इसके कई निर्णयों को अदालत में चुनौती दी गई। संभवत: ऐसे ही तमाम मुद्दों पर विचार करने के बाद सरकार ने इसकी जगह ग्रीन ट्रिब्यूनल के गठन का निर्णय किया है। लेकिन इसकी भी क्या गारंटी है कि वह एनईएए से अलग होगी? सच तो यह है कि सरकार द्वारा गठित ज्यादातर ट्रिब्यूनलों, बोर्डों और कमिशनों का हाल कमोबेश इसी जैसा है। जैसे कि इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि सरकार की तमाम कवायदों के बावजूद अब तक पर्यावरण का संकट दूर होता क्यों नहीं नजर आ रहा है। दरअसल हमारे राजनीतिक नेतृत्व और नौकरशाही के लिए पर्यावरण का मुद्दा एक दुधारू गाय की तरह है, क्योंकि इसमें कोई जोखिम नहीं है। इससे वोट बैंक नहीं बनते-बिगड़ते। हां, बीच-बीच में कभी-कभी अदालत का डंडा बरसता है जैसे पिछले साल यमुना प्रदूषण के मामले में हाई कोर्ट ने दिल्ली जल बोर्ड के कुछ अधिकारियों को जेल और जुर्माने की सजा सुनाई थी। प्रदूषण दूर करने के मामले में सरकारें क्या कर रही हैं, उन्होंने कितने पैसे खर्च किए, उसका हिसाब मांगने वाला आमतौर पर कोई नहीं है। और अगर इसका हिसाब मांगा भी जाए तो यह मामला इतना तकनीकी है कि सरकारी बाबू तरह-तरह के बहाने बना कर आसानी से निकल जाते हैं। बहुत हुआ तो सारा दोष पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों पर मढ़ देते हैं। आज पर्यावरण पर बने तमाम सरकारी अपने मनचाहे नौकरशाहों को उपकृत करने का एक जरिया बने हुए हैं। लेकिन इनके कामकाज की एक बानगी देखिए, नदियों को नुकसान पहुंचाने वाली औद्योगिक इकाइयों की पहचान कई बार की गई, पर कभी उन पर शिकंजा नहीं कसा गया। क्या प्रदूषण जैसे संकट का सामना कागजी घोड़ों से किया जा सकता है? जब तक हमारे देश में भी पर्यावरण को लेकर जागरूकता नहीं होगी तब तक इसके नाम पर सरकार के भीतर और उसके बाहर का एक तबका अपने हित साधता रहेगा।
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
..तो महासागरों में खत्म हो जाएगा जीवन
यदि धरती पर पर्यावरण का संकट बरकरार रहा, तो समुद्र में जीवन खत्म हो जाएगा। इसकी वजह है महासागरों के गहरे पानी में कम होती आक्सीजन। यह कुछ वैसा ही नजारा होगा जैसा हजारों साल पहले समुद्र में ज्वालामुखी फटने पर हुआ होगा। महासागरों के अध्ययन बता रहे हैं किसमुद्र में डैड जोन बनते जा रहे हैं। कैसे बनते हैं डैड जोन : धरती पर अनाज उपजाने के लिए उर्वरकों का जमकर उपयोग किया जाता है। मिट्टी में मिले ये रासायनिक उर्वरक नदियों में मिलकर समुद्र में पहुंचते हैं। जिनसे समुद्र की वनस्पति और जीव-जंतु नष्ट होते हैं। पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट होता है। तब डेड जोन बनता है। पूरी दुनिया के सागरों और महासागरों में में ऐसे 400 डैड जोन बन चुके हैं। कमी आक्सीजन की : एक और बड़ा खतरा है महासागरों में तेजी से आक्सीजन का कम होना। विशेषज्ञों की राय में इस सदी के अंत तक महासागरों में घुली हुई आक्सीजन के स्तर में 7 फीसदी तक की गिरावट आ सकती है। महासागरों में आक्सीजन केवल बारिश पानी से पहुंचती है। बरसात का पानी या तो धरती में विलीन हो जाता है या समुद्री जलधाराओं में प्रवाहित होकर गहरे महासागरों तक पहुंचता है। जलवायु परिवर्तन के चलते ये दोनों प्रक्रियाएं प्रभावित हो रही हैं। समुद्र की सतह का जल गर्म होकर हल्का हो जाता है और इस प्रक्रिया में पानी में से आक्सीजन निकल जाती है। आक्सीजन की कमी पानी में रहने वाले जीवन को नष्ट करता है।
ग्लोबल वार्मिग से तेजी से बढ़ रहे हैं पेड़
लंदन। ग्लोबल वार्मिग के कारण उत्तरी अमरीका में पेड़ों के विकास पर असर पड़ा है और पिछले 200 सालों की तुलना में सबसे तेज गति से बढ़ रहे हैं। स्थानीय अखबार द इंडिपेंटेंड में छपी एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिग पेड़ों के विकास को नियंत्रित कर रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तरी गोलार्द्ध में पेड़ों के विकास पर ग्लोबल वार्मिग का असर देखा जा सकता है। यहां पर वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा काफी अधिक है और जिसके कारण पेड़ों का विकास तीव्र गति से हो रहा है। वैज्ञानिकों ने दुनिया के सबसे पुराने पेड़ों के विकास का अध्ययन कर यह नतीजा निकाला है। अध्ययन में 55 क्षेत्रों में लगाए गए तरह-तरह के पेड़ों के विकास का 25 वर्षो तक अवलोकन किया गया। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पेड़ों का विकास पिछले 200 सालों की तुलना में सबसे अधिक रहा। स्मिथसोनियन पर्यावरण अनुसंधान केन्द्र के वन्य वैज्ञानिक जियोफ्रेपार्कर के अनुसार उत्तरी अमरीका में पेड़ों की विकास दर में अप्रत्याशित बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो उच्च तापमान और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का अधिक मात्रा के कारण ही संभव है। पार्कर ने बताया कि सहयोगियों के साथ मिलकर उन्होंने 1987 से ही विभिन्न क्षेत्रों में पेड़ों के विकास का मापन करना शुरू किया था। उन्होंने बताया कि इस दौरान पेड़ों के विकास में अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़ोतरी दर्ज की गई।
ग्लोबल वार्मिग से तेजी से बढ़ रहे हैं पेड़
लंदन। ग्लोबल वार्मिग के कारण उत्तरी अमरीका में पेड़ों के विकास पर असर पड़ा है और पिछले 200 सालों की तुलना में सबसे तेज गति से बढ़ रहे हैं। स्थानीय अखबार द इंडिपेंटेंड में छपी एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने यह दावा किया है। वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लोबल वार्मिग पेड़ों के विकास को नियंत्रित कर रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उत्तरी गोलार्द्ध में पेड़ों के विकास पर ग्लोबल वार्मिग का असर देखा जा सकता है। यहां पर वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा काफी अधिक है और जिसके कारण पेड़ों का विकास तीव्र गति से हो रहा है। वैज्ञानिकों ने दुनिया के सबसे पुराने पेड़ों के विकास का अध्ययन कर यह नतीजा निकाला है। अध्ययन में 55 क्षेत्रों में लगाए गए तरह-तरह के पेड़ों के विकास का 25 वर्षो तक अवलोकन किया गया। वैज्ञानिकों ने पाया कि इन पेड़ों का विकास पिछले 200 सालों की तुलना में सबसे अधिक रहा। स्मिथसोनियन पर्यावरण अनुसंधान केन्द्र के वन्य वैज्ञानिक जियोफ्रेपार्कर के अनुसार उत्तरी अमरीका में पेड़ों की विकास दर में अप्रत्याशित बढ़ोतरी दर्ज की गई, जो उच्च तापमान और वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का अधिक मात्रा के कारण ही संभव है। पार्कर ने बताया कि सहयोगियों के साथ मिलकर उन्होंने 1987 से ही विभिन्न क्षेत्रों में पेड़ों के विकास का मापन करना शुरू किया था। उन्होंने बताया कि इस दौरान पेड़ों के विकास में अपेक्षा से कहीं अधिक बढ़ोतरी दर्ज की गई।
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